Thursday, October 3, 2024
Patna

बिहार के 9 देवी मंदिरों की कहानी,बड़ी पटन देवी में गिरी थी मां की दाहिनी जांघ:इस मंदिर में माता खुद कामाख्या से आई थी

पटना.आज से नवरात्र की शुरुआत हो रही है। बिहार में देवी दुर्गा के कई मंदिर ऐसे हैं, जिनका धार्मिक महत्व बहुत ज्यादा है। कई की मान्यता शक्तिपीठ, तो कई की मान्यता सिद्धपीठ के तौर पर है।

 

 

इनमें कुछ ऐसे हैं, जिनके विकास के लिए बिहार सरकार ने भी प्रयास किए हैं। पटना के पटन देवी और गोपालगंज के थावे मंदिर का सरकार ने विकास कराया है।

 

वहीं, कुछ ऐसे हैं, जिन पर ध्यान दिलाने के बावजूद सरकार की ओर से कुछ नहीं किया गया। अब स्थानीय लोग अपने रुपयों से ही मंदिर का विकास कर रहे हैं। ऐसा एक मंदिर दरभंगा में है।

 

आगे पढ़िए बिहार में मौजूद ऐसे ही 9 शक्तिपीठों-सिद्धपीठों की कहानी, जहां आम दिनों के साथ ही नवरात्र में आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या लाख तक पहुंच जाती है।

 

बड़ी पटन देवी मंदिर, पटना

 

देश के 51 शक्तिपीठ में एक मानी जाने वाली बड़ी पटन देवी से ही शहर का नाम पटना रखा गया। इन्हें पटना की नगर देवी और रक्षक माना जाता है। बड़ी पटन देवी में देवी सती की दाहिनी जांघ गिरे होने की मान्यता है।

 

मंदिर में हर दिन सैकड़ों श्रद्धालु आते हैं। नवरात्र के वक्त आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या लाख तक पहुंच जाती है। नवरात्र के वक्त मंदिर परिसर ही नहीं, आसपास के इलाके में भी दिव्य अनुभूति होती है।मंदिर में काले पत्थर से बनी महाकाली, महालक्ष्मी एवं सरस्वती की प्रतिमा है। भैरव की भी एक प्रतिमा स्थापित की गई है। एक योनि कुंड है, जिसमें डाली गई हवन सामग्री के पाताल तक पहुंचने की मान्यता है।

 

 

पटन देवी मंदिर का योनि कुंड। मान्यता है कि इसमें डाली गई हवन सामग्री के पाताल तक पहुंचती है।पटन देवी मंदिर में दिन में सार्वजनिक तौर पर वैदिक तरीके से पूजा होती है, जबकि रात में कुछ देर के लिए पट बंद कर तांत्रिक पूजा भी की जाती है।

 

मंदिर के महंत विजय शंकर गिरी बताते हैं कि इसके स्थापना के वक्त की जानकारी नहीं है। उनका परिवार लगभग 70 वर्षों से मंदिर की सेवा कर रहा है।नवरात्र में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी दर्शन के लिए आते हैं। उन्होंने मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए 8 करोड़ रुपए भी दिए हैं। इससे आनेवाले दिनों में मंदिर की भव्यता और बढ़ जाएगी।

 

मां आरण्य देवी मंदिर, आरा

 

भोजपुर जिले के आरा शहर का नाम आरण्य देवी की वजह से ही है। आरा शहर में ही स्थापित इस मंदिर की कहानी त्रेतायुग से लेकर महाभारत काल तक से जुड़ी है। भगवान राम से लेकर पांडवों तक के यहां मां आरण्य देवी की पूजा करने की कहानियां हैं।मंदिर के सहायक पुजारी बबलू बाबा कहते हैं कि यहां शक्तिपीठ के साथ ही सिद्धपीठ भी है। यहां सती की बायीं जांघ गिरी थी। इसके बाद पांडवों ने वनवास के दौरान यहां मां आरण्य देवी की मूर्ति स्थापित की।

 

यहां आनेवाले श्रद्धालु अपनी मन्नतें पूरी करने के लिए घी के बड़े-बड़े दीये जलाते हैं। मनोकामना पूरी होने पर माता का श्रृंगार भी करवाते हैं। हर दिन ही सैकड़ों की संख्या में लोग दर्शन के लिए आते हैं, लेकिन नवरात्र के वक्त आसपास के जिलों के अलावा दूसरे राज्यों से भी श्रद्धालु पहुंचते हैं।आरण्य देवी मंदिर का 6 मंजिला भवन बनाया जा रहा है।6 मंजिला बन रहा है मंदिर का भवन

 

बबलू बाबा कहते हैं कि मां आरण्य देवी मंदिर विकास ट्रस्ट इसका जीर्णोद्धार करा रहा है। 150 फीट ऊंचा 6 मंजिला भवन बनेगा। आने-जाने के लिए लिफ्ट की भी व्यवस्था होगी।

 

वैष्णवी शक्तिपीठ, दरभंगा

 

दरभंगा के जाले में बने इस मंदिर को भी शक्तिपीठ माना जाता है। हालांकि, इसकी कहानी देवी सती से नहीं जुड़ी है। कहा जाता है कि करीब 200 साल पहले रतनपुर गांव में महामारी फैली थी। उस वक्त बमभोली दास नाम के एक संत ने जमीन के अंदर से मां रत्नेश्वरी की प्रतिमा निकाली और उसकी मंदिर में स्थापना की।इसके बाद ही महामारी खत्म हो गई। फिर लोगों ने मां रत्नेश्वरी की पूजा शुरू कर दी। यहां वैष्णव विधि से पूजा की जाती है। मंदिर आनेवाले भक्तों का कहना है कि यहां सच्चे मन से कुछ भी मांगने पर वो पूरी होती है।

 

 

इस मंदिर का निर्माण स्थानीय लोग ही चंदा इकट्ठा कर करा रहे हैं।पुजारी राज किशोर ठाकुर बताते हैं कि यहां ग्रामीण ही चंदा करके मंदिर बनवा रहे हैं। 3 साल में अभी तक करीब एक करोड़ रुपए खर्च हो गए हैं। लोगों ने प्रशासन और सरकार से कई बार मदद की गुहार लगाई, लेकिन कुछ नहीं मिला।

 

उग्रतारा मंदिर, सहरसा

 

700 साल पुराना यह प्रसिद्ध मंदिर सहरसा के महिषी में है। मंदिर के पुजारी प्रमोद कुमार के अनुसार मान्यता है कि वशिष्ठ मुनि ने तपस्या कर माता भगवती को यहां स्थापित किया था। लेकिन, बाद में वो विलीन हो गईं।मंदिर में प्रत्येक मंगलवार को श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है। साथ ही नवरात्र के समय देश-विदेश के भी श्रद्धालु आते हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर में जो भी श्रद्धालु सच्चे मन से कुछ मांगते हैं, मां उग्रतारा उसकी मनोकामना पूरी करती हैं।

 

 

उग्रतारा मंदिर में होने वाले महोत्सव को इस साल स्थगित कर दिया गया है।सहरसा के उग्रतारा मंदिर में हर साल नवरात्र के वक्त बिहार सरकार महोत्सव का आयोजन करती है। हालांकि, इस साल बाढ़ की स्थिति देखते हुए उग्रतारा महोत्सव को स्थगित कर दिया गया है।

 

थावे मंदिर, गोपालगंज

 

इस मंदिर की स्थापना के पीछे कई कहानियां हैं। कहा जाता है कि 16वीं शताब्दी में एक रहषु भगत थे, जिनकी पुकार पर माता खुद कामाख्या से चलकर आई थीं। रास्ते में वो जहां-जहां रुकी, वहां प्रसिद्ध मंदिरों की स्थापना हुई। इनमें कोलकाता की दक्षिणेश्वर काली, पटना की पटन देवी, सारण का आमी मंदिर शामिल है।

 

यह भी कहा जाता है कि साल 1714 में हथुआ के राजा युवराज शाही बहादुर चंपारण के जमींदार काबुल मोहम्मद बड़हरिया से लड़ाई में हार के बाद वापस लौट रहे थे। थावे के पास जंगल में पेड़ के नीचे आराम करने के समय सपने में उन्हें माता के दर्शन हुए। माता के बताए तरीकों से उन्होंने वापस लड़ाई की और जीते।इसके बाद उन्होंने पेड़ के पास खुदाई की तो वन दुर्गा की प्रतिमा मिली। इसी प्रतिमा की स्थापना मंदिर बनाकर की गई, जिन्हें बाद में थावे भवानी या रहषु भवानी के नाम से जाना गया।

 

मान्यता है कि श्रद्धालुओं को देवी दर्शन के बाद भक्त रहषू के मंदिर में भी जाना होता है। वरना देवी की पूजा अधूरी मानी जाती है।बिहार सरकार इस मंदिर का री-डेवलपमेंट करा रही है।मंदिर के पुजारी संजय पांडेय बताते हैं कि ‘आसपास के कई जिलों के श्रद्धालु कोई भी नया काम करने के पहले यहां आकर आशीर्वाद लेते हैं। नारियल, पेड़ा और चुनरी चढ़ाते हैं। नवरात्रि में यहां मेला लगता है, जिसमें झारखंड, यूपी, बंगाल और नेपाल से 4 से 5 लाख भक्त आते हैं।’

 

67 करोड़ से हो रहा सौंदर्यीकरण का काम

 

पुजारी संजय पांडेय के अनुसार बिहार सरकार इस मंदिर को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर रही है। करीब 67 करोड़ रुपए से सौंदर्यीकरण कराया जा रहा है। गर्भ गृह को आधुनिक तरीके से बनाया और सजाया गया है।

 

पटजिरवा सिद्धपीठ, बेतिया

 

बेतिया के बैरिया में स्थित इस मंदिर का महत्व कामाख्या, पटन देवी, थावे, तारापीठ जैसे सिद्धपीठों की तरह है। मान्यता के अनुसार यहां माता सती के पैर का कुछ हिस्सा गिरा था। बाद में वहां नर-मादा दो पीपल के पेड़ उपजे। तब इस जगह का नाम पैरगिरबा पड़ा।

 

भगवान राम के साथ शादी के बाद ससुराल जा रही माता सीता की डोली यहां रुकी। माता सीता ने यहां डोली का पट गिराकर आराम करने की इच्छा जाहिर की। इस वजह से जगह का नाम पटगिरवा हो गया। माता सीता के आराम करने के दौरान भगवान राम ने दोनों पीपल के पेड़ों की 3 दिन तक पूजा की थी। उन्होंने माता के 10 सिद्धियों की स्थापना की।यहां आसपास के 10 गांवों के नाम राम की बारात ठहरने के दौरान ही रखे गए। पंडित मनोज कुमार पांडेय बताते हैं कि ‘जहां राम-सीता ने विश्राम किया, वहां का नाम श्रीनगर पड़ा। जहां मंगलाचरण गाए जाते रहे, जगह का नाम मंगलपुर है। जहां यज्ञ किया गया, उसका नाम पूजहां है। जहां बारात के घोड़े ठहराए गए, उसका नाम घोड़हिया है।’

 

इस मंदिर में नवरात्र के दौरान बिहार के अलावा नेपाल से भी करीब 2 लाख श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। इस साल भी करीब 2 लाख श्रद्धालुओं के आने की संभावना है।मंदिर के पुजारी लालबाबू मिश्र के अनुसार जो भी श्रद्धालु सच्चे मन से मन्नत मांगता है, पटजिरवा माई उसे अवश्य पूरी करती है। आज तक पटजिरवा माई के पास से कोई निराश नहीं लौटा।इन्हीं दो पीपल के पेड़ों के बीच सिद्धपीठ होने की मान्यता है।

पर्यटन स्थल बना, अतिक्रमण से परेशानी

 

पंडित मनोज कुमार पांडेय के अनुसार स्थानीय विधायक नारायण प्रसाद के पर्यटन मंत्री रहने के वक्त इस जगह को पर्यटक स्थलों में शामिल किया था। पीपल के पेड़ों के बीच बने मंदिर को भव्यता दी गई। पूरे परिसर में पेड़ों के पास चबूतरा बनाया गया। श्रद्धालुओं के रहने के लिए भवन निर्माण भी हुआ।हालांकि, मंदिर के आसपास कुछ लोगों द्वारा अतिक्रमण कर लिया गया है। उस पर सरकार को और स्थानीय प्रशासन को ध्यान देने की जरूरत है।

 

मां मंगलागौरी शक्तिपीठ, गया

 

इस मंदिर की सबसे खास बात है कि गर्भगृह में हमेशा अंधेरा रहता है। सिर्फ एक दीये से रौशनी होती है, जो कभी बुझता नहीं हैमान्यता के अनुसार माता सती का वक्षस्थल यहां गिरा था। महंत आकाश जयदेव गिरी का कहना है कि इस मंदिर का उल्‍लेख पद्म पुराण, वायु पुराण, अग्नि पुराण में मिलता है। यहां तांत्रिक सिद्धि के लिए भी पूजा होती है।

 

 

मंगलागौरी मंदिर के गर्भ गृह में अखंड ज्योति जलती रहती है।

इस मंदिर का इतिहास हजारों साल पुराना बताया जाता है। कहा जाता है कि एक दंडी स्वामी ने इसका निर्माण कराया था। उन्होंने ही माता के गर्भ गृह में अपनी साधना से अखंड ज्योति जलाई थी, जो अब तक प्रज्ज्वलित है।मंदिर कैंपस में एक मौलश्री का पेड़ है, जो सैकड़ों साल पुराना बताया जाता है। इस पर पतझड़ का कोई असर नहीं पड़ता। यहां बैठने से ही श्रद्धालुओं को शांति मिलती है।

 

चंडिका शक्तिपीठ, मुंगेर

 

मान्यता है कि देवी सती का बांया आंख इसी जगह गिरा था। इस मंदिर में माता के आंख की पूजा होती है। आम दिनों में भी यहां 3 हजार लोग रोज आते हैं। नवरात्र में सप्तमी से लेकर नवमी तक यह संख्या एक लाख प्रतिदिन से ऊपर हो जाती है।मंदिर के प्रधान पुजारी नंदन बाबा और पवन बाबा बताते हैं कि यहां के काजल, पानी और फूल का बहुत महत्व है। काजल से आंख की रोशनी बढ़ती है। पानी शरीर में लगाने से चेचक जैसी बीमारियां ठीक हो जाती हैं। साथ ही मंदिर में चढ़ने वाले फूल से निसंतान दंपत्तियों को संतान प्राप्ति होती है।

 

 

चंडिका शक्तिपीठ में फिलहाल पानी भर गया है।

चंडिका शक्तिपीठ को करीब 4 करोड़ रुपए की लागत से नया स्वरूप दिया जा रहा है। चंडिका स्थान न्यास समिति मंदिर के गर्भ गृह को भी नए सिरे से बनवा रही है। अगले साल तक यह काम पूरा हो जाएगा।

 

उच्चैठ भगवती स्थान, मधुबनी

 

इस प्रसिद्ध मंदिर की कहानी महाकवि कालीदास से जुड़ी है। मान्यता है कि कालीदास ज्ञान प्राप्ति से पहले काफी मूर्ख थे। इस वजह से उनकी पत्नी विद्योतमा ने उन्हें घर से निकाल दियाअपनी मूर्खता में ही उन्होंने काफी कष्ठ उठाकर मंदिर में माता के लिए दीप जलाया। इससे प्रसन्न होकर माता ने कालीदास को दर्शन दिए। साथ ही वरदान दिया कि एक रात में वो जिस किताब पर हाथ रख देंगे, वो याद हो जाएगी।

 

कालीदास वापस आए और एक रात में सभी किताबों को छू लिया। इस तरह वो संस्कृत के सभी ग्रंथों के ज्ञाता हो गए। बाद में उन्होंने कुमारसंभवम और मेघदूत जैसी रचनाएं लिखी।इस प्रसिद्ध मंदिर की कहानी महाकवि कालीदास से जुड़ी है।मंदिर की काफी महिमा तो है, लेकिन इसका उचित विकास नहीं हो सका है। यहां के पुजारी कन्हैया पंडित बताते हैं कि मंदिर का इतिहास हजारों साल पुराना है। हालांकि मंदिर के विकास के लिए अभी तक सरकार ने कुछ नहीं किया है। मंदिर को जितना भव्य होना चाहिए, उतना नहीं है।

Pragati

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