ताइवान में आयोजित होगा 12वीं विश्व बांस कांग्रेस, बिहार की बेटी डॉ. ज्योति रानी रिसर्च प्रस्तुत करेंगी
पटना.विश्व बांस कांग्रेस का आयोजन 18-22 अप्रैल को ताइवान में होने जा रहा है। इसमें दुनिया भर के वैज्ञानिक, शोधकर्ता, उद्योगपति, कारीगर, सरकारी और गैर-सरकारी संगठन शामिल होंगे। इस बार पटना की डॉ. ज्योति रानी अपना रिसर्च पेपर विश्व बांस कांग्रेस में प्रस्तुत करने जा रही है। इसका विषय ‘अगली पीढ़ी का बांस: समाधान, नवाचार और डिजाइन है।
लाठी बांस का उपयोग लुगदी और कागज बनाने में किया जाता है
डॉ. ज्योति रानी ने वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून से वन वनस्पति विज्ञान में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उन्होंने बांस की एक प्रजाति डेंड्रोकैलेमस स्ट्रिक्टस (लाठी बांस) की उपज के लिए खेती के मापदंडों को मानकीकृत करने पर शोध किया है। इस बांस का उपयोग बड़े पैमाने पर लुगदी और कागज उद्योग में किया जाता है। हस्त शिल्प में भी इसका बेहतर उपयोग किया जाता है।इसके अलावा ज्योति ने लाइफ साइंस में गेट पास किया। संयुक्त यूजीसी-सीएसआईआर नेट के साथ ही पर्यावरण विज्ञान में यूजीसी नेट पास किया। अभी ज्योति पटना विश्वविद्यालय के बायो केमिस्ट्री और पर्यावरण विज्ञान विभाग, साइंस कॉलेज में विजिटिंग फैकल्टी के रूप में कार्यरत हैं।
एक टन बांस प्रति वर्ष 600 किलोग्राम कार्बन ग्रहण करता है
डॉ. ज्योति रानी कहती हैं कि एक हेक्टेयर बांस प्रति वर्ष औसतन लगभग 17 टन कार्बन अवशोषित करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो एक टन बांस प्रति वर्ष 600 किलोग्राम कार्बन ग्रहण करता है। इसलिए बांस एक टिकाऊ और पर्यावरण के प्रति जागरूक जीवन शैली के लिए लकड़ी का एक अच्छा विकल्प है।सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों को बांस की खेती पर जागरूकता बढ़ाने की दिशा में काम करने के लिए आगे आना चाहिए। वे कहती हैं कि उत्पादों को प्रोडेक्ट्स बनाने में होने वाली लागत को कम करने के लिए निवेश करना चाहिए। ऐसे शोध को बढ़ावा देना चाहिए जो लकड़ी या धातुओं के बजाय विभिन्न क्षेत्रों में बांस के उपयोग पर केंद्रित है।
बांस की कई खूबियां
एसएनएस कालेज के जंतु विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. सत्येन्द्र कुमार कहते हैं कि वैशाली जिला भी पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह बांस की खेती के लिए अनुकूल है। इस लिहाज से इसे पर्यावरण में बढ़ रहे प्रदूषण से लड़ने का बड़ा माध्यम माना जा रहा है। यह बढ़ता भी काफी तेजी से है। बांस की कुछ प्रजातियां तो ऐसी भी हैं जो एक दिन में 121 सेंटीमीटर तक बढ़ जाती है।
पांच साल बाद यह उपज देने लगता है। इस पर सूखे और वर्षा का ज्यादा असर नहीं पड़ता है। देश के उत्तर पूर्वी क्षेत्र बांस के उत्पादन में काफी समृद्ध है। बिहार में भी इसे काफी विकसित किया जा सकता है। बांस से अचार, मुरब्बा, सिरका भी बनाया जाता है। कई खूबियों की वजह से इसे हरा सोना कहा जाता है।