कावर झील के अस्तित्व का संकट: हर साल गर्मी में सूख जाती है, पानी ही नहीं बचेगा तो क्यों आएंगे परिंदे
कावर झील। कभी एशिया की सबसे बड़ी मीठे पानी की झील और पक्षी विहार के रूप में मशहूर बेगूसराय जिले की कावर झील अब अस्तित्व का संकट झेल रही है। राजधानी पटना से 120 किमी दूर बेगूसराय जिले जयमंगला गढ़ में करीब 63.11 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली इस झील का निर्माण बूढ़ी गंडक की धारा बदलने से हुआ है।
बरसात के दिनों में इसका क्षेत्रफल बढ़ जाता है तो गर्मी में यह महज दो-चार हजार एकड़ में सिमट जाती है। झील में जाड़े के दिनों में देश-विदेश से असंख्य परिंदे आते हैं। हालांकि, हाल के वर्षों में इनकी संख्या में कमी आई है। यह बिहार में पर्यटन का बड़ा केंद्र बन सकता है।
कम होती गई जल ग्रहण क्षमता
पर्यावरणविद बताते हैं कि झील के जल स्रोत गाद भर जाने के कारण पानी पहुंचने में कामयाब नहीं रहे। बाढ़ के कारण मिट्टी का जमाव (सिल्टेशन) से भी इसकी गहराई कम हो रही है। इससे झील की जल संग्रहण क्षमता लगातार कम होती जा रही है। गर्मी के दिनों में झील के सूखने के अन्य कारण भी हैं।
किसानों की है झील की जमीन
झील की जमीन किसानों की है। गर्मी के दिनों में पानी सूखने पर किसान बड़े भूभाग पर खेती करते हैं। किसानों को जमीन का मुआवजा नहीं मिला है। दूसरी ओर बरसात के दिनों में जब भी पानी जमा रहता है, यहां बड़ी संख्या में मछुआरे मछलियों का शिकार करते हैं। स्थानीय लोग किसानों और मछुआरों के हितों को ध्यान में रखकर कावर झील के विकास और संरक्षण की योजना चाहते हैं।
अब घट गई है परिंदों की आवक
स्थानीय लोग बताते हैं कि डेढ़ से दो दशक पहले तक सर्दी के मौसम में यह झील असंख्य देशी-विदेशी परिंदों से गुलजार रहता था। 90 के दशक में साइबेरियन सारस को भी देखा गया था। परिंदे अभी भी आते हैं, लेकिन उनकी संख्या घट गई है। स्थानीय ग्रामीणों ने झील के अस्तित्व पर मंडरा रहे संकट को लेकर चिंता जताई है। उनका कहना है कि यही हाल रहा तो आने वाले समय में यह विलुप्त हो जाएगा। सरकार न तो झील का संरक्षण कर सकी है, न ही किसानों को जमीन या उसका मुआवजा ही दे पाई है।
कागजों पर विकास योजनाएं
बताते चलें कि करीब तीन वर्ष पहले तत्कालीन जिलाधिकारी अरविंद कुमार वर्मा ने झील में जल की उपलब्धता को सुनिश्चित करने के लिए इसे गंडक नदी से जोड़ने की कार्य योजना तैयार कराने की बात कही थी। यह योजना अभी तक कागजों पर ही सिमटी हुई है। झील के संरक्षण व विकास को लेकर मंत्रियों एवं अधिकारियों के वादे भी धरे रह गए हैं।
रामसर साइट का लाभ नहीं
झील को रामसर साइट में शामिल किए जाने के बाद विकास की उम्मीद जगी थी, लेकिन कुछ नहीं किया जा सका है। विश्व के विभिन्न वेटलैंड्स के संरक्षण के लिए ईरान के छोटे से शहर रामसर में 1971 में एक कन्वेंशन हुआ था, जिसे रामसर कन्वेंशन कहा जाता है। मंझौल के किसान शरद कुमार व अरुण कुमार किसानों और मछुआरों के हितों को ध्यान में रखते हुए झील के विकास और संरक्षण की योजना चाहते हैं। कहते हैं कि न तो किसानों को लाभ मिल रहा है, न ही रामसर साइट होने का लाभ है। मंझौल के अनुमंडल पदाधिकारी राज कुमार गुप्ता झील के सूखने को मौसमी घटना मानते हैं। कहते हैं कि इस प्राकृतिक झील में मौसम के कारण कभी सुखाड़ तो कभी जल-जमाव रहता है। वे झील में पानी लाने के स्रोतों का पता कर इसकी सुंदरता बरकरार रखने की कोशिश का वादा करते हैं।
सोर्स:केशव किशोर, मंझौल