“धमौन की छाता होली की 500 साल पुरानी परंपरा:वृंदावन के बरसाने की होली की तर्ज पर होता है सेलिब्रेशन
समस्तीपुर जिले के धमौन गांव में होली का उत्सव अनोखे और अद्वितीय तरीके से मनाया जाता है, जिसे ‘छाता होली’ के नाम से जाना जाता है। ये परंपरा लगभग 500 साल पुरानी मानी जाती है और यह वृंदावन के बरसाने की होली की तर्ज पर मनाई जाती है।होली के दिन के लिए कुछ दिन पहले से गांव के लोग अपने-अपने घरों और मोहल्लों में विशाल बांस की छतरियां तैयार करते हैं, जिनके नीचे लोग एकजुट होकर होली वाले दिन गीत गाते और नाचते हैं। ये उत्सव केवल रंगों का खेल नहीं है, बल्कि ये गांव की सांस्कृतिक धरोहर, एकता और भाईचारे का जीवंत प्रतीक बन चुका है।
वृंदावन की होली की तर्ज पर धमौन की छाता होली
धमौन की छाता होली ने अपनी अनूठी परंपरा और सांस्कृतिक गहराई के कारण एक अलग पहचान बनाई है। यहां किसी भी प्रकार का जाति, धर्म या संप्रदाय का भेदभाव नहीं होता; यह उत्सव सभी को एकजुट करता है। गांव में हर व्यक्ति अपनी टोली के साथ छतरी तैयार करता है, और ये छतरियां इतनी बड़ी होती हैं कि इनमें दो दर्जन से अधिक लोग एक साथ होली गीत गा सकते हैं। इस परंपरा का आयोजन सिर्फ एक मजेदार खेल नहीं है, बल्कि यह सामूहिक उत्सव और सामाजिक एकता का प्रतीक बन चुका है।
छतरी का निर्माण: एक कला और मेहनत का परिणाम
धमौन में होली के लिए छतरियों का निर्माण लगभग एक महीने पहले से शुरू हो जाता है। एक छतरी बनाने में कम से कम 15 दिन का समय लगता है और इसके निर्माण पर 15,000 रुपए से लेकर 50,000 रुपए तक का खर्च आता है। कलाकार अपनी कला और कड़ी मेहनत से इन छतरियों को आकर्षक और भव्य बनाते हैं।
इसमें रंगीन कागज, थर्मोकोल, घंटियां और अन्य सजावट की सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है। यहां तक कि कुछ कलाकारों को अन्य स्थानों से भी बुलाया जाता है ताकि छतरियों की सुंदरता में और इजाफा हो सके। पवन राज साहू, एक स्थानीय कलाकार, ने बताया कि वे तमिलनाडु के एक प्रसिद्ध मंदिर का लुक छतरी पर प्रदर्शित कर रहे हैं, ताकि यह और भी विशिष्ट हो।
500 साल पुरानी परंपरा
गांव के बुजुर्गों का मानना है कि धमौन की छाता होली की परंपरा करीब 500 साल पुरानी है। कुछ बुजुर्गों के अनुसार, यह परंपरा 15वीं शताब्दी से चली आ रही है, हालांकि छतरियों को नया रूप 1930 में दिया गया था। उस समय नबुदी राय के घर से पहली सुसज्जित छतरी निकाली गई थी, जो इस परंपरा को और भी लोकप्रिय बनाने में सहायक सिद्ध हुई।
धमौन में होली कैसे मनाई जाती है?
होली के दिन, धमौन के लोग सुबह-सुबह स्वामी निरंजन मंदिर में एकत्र होते हैं, जहां वे अपनी छतरियों के साथ अबीर-गुलाल चढ़ाते हैं और ‘धम्मर’ तथा ‘फाग’ गीत गाते हैं। इसके बाद, छतरियों को कलाबाजी के साथ घुमाया जाता है और घंटियों की आवाज से पूरा गांव गूंज उठता है। यह उत्सव धीरे-धीरे शोभायात्रा का रूप ले लेता है, जो गांव के विभिन्न घरों में जाती है।देर शाम को झांकियां महादेव स्थान पहुंचती हैं, और वहां मध्य रात्रि के बाद चैता गीतों के साथ होली का समापन होता है।
राजकीय उत्सव का सपना
धमौन के लोग अब इस प्राचीन परंपरा को राजकीय महोत्सव घोषित करने की मांग कर रहे हैं। गांव के इंजीनियर रजनीश यादव ने इस परंपरा को एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में देखा है और सरकार से अपील की है कि इसे राजकीय महोत्सव का दर्जा दिया जाए।
उन्होंने बताया कि धमौन की छाता होली को देखने के लिए शरद यादव, लालू प्रसाद और चौधरी चरण सिंह जैसी प्रमुख हस्तियां भी यहां आ चुकी हैं। यदि इसे राजकीय महोत्सव का दर्जा मिल जाता है, तो यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य धरोहर बन सकती है और इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान को भी बढ़ावा मिलेगा।
गांव के रामप्रवेश राय ने बतलाया कि धमौन की छाता होली केवल एक सांस्कृतिक उत्सव नहीं, बल्कि यह गांव की पहचान बन चुकी है। यह उत्सव एकता, भाईचारे और सामूहिक उत्सव की भावना का प्रतीक है। यदि इसे राजकीय महोत्सव का दर्जा मिल जाता है, तो यह न केवल धमौन, बल्कि पूरे बिहार और भारत की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्थापित हो सकता है। इस परंपरा का संरक्षण और प्रचार इस क्षेत्र की संस्कृति को जीवित रखने में मदद करेगा, और आने वाली पीढ़ियों के लिए यह एक अमूल्य धरोहर बन जाएगा।