Tuesday, November 26, 2024
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अफगान में तालिबान की सत्ता कायम होने के बाद से वैश्विक आतंकवाद का संकट गहराया,जाने कैसे?

विवेक ओझा। Turmoil in Afghanistan अमेरिका के न्यूयार्क में 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हुए हमले के बाद उसने पूरी दुनिया से आतंक को खत्म करने का संकल्प लिया। इस राह पर वह काफी आगे भी बढ़ा, लेकिन हाल ही में अफगान से उसकी वापसी और वहां पर तालिबान की सत्ता कायम होने के बाद से वैश्विक आतंक का खतरा फिर बढ़ गया है।

इसी कड़ी में हाल ही में अमेरिका के डिफेंस सेक्रेटरी लायड आस्टिन ने कहा है कि अब अमेरिकी सैनिकों की वापसी और अफगान में तालिबान की ताजपोशी के बाद से इस बात की आशंका बढ़ गई है कि अलकायदा आतंकी संगठन एक बार फिर से अफगान भूक्षेत्रों पर अपनी मजबूत पकड़ बना लेगा और उसी मानसकिता और सक्रियता से काम करना शुरू कर देगा जैसा कि उसने दो-ढाई दशक पहले अमेरिका जैसे देशों के खिलाफ किया था। तालिबान ने अपनी अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा के बाद सरकार और उससे जुड़े राजनीतिक पदों के लोगों के लिए वैधता की तलाश करनी शुरू कर दी है।

हाल ही में तालिबानी सरकार में शामिल हक्कानी नेताओं को अमेरिका की तरफ से ब्लैकलिस्ट किए जाने पर तालिबान ने आपत्ति जताई है। तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने इस संबंध में कहा, ‘जिन नेताओं को हमने सरकार में जगह दी है उन्हें ब्लैकलिस्ट कर अमेरिका दोहा समझौते का उल्लंघन कर रहा है।’ तालिबान की मांग है कि दोहा समझौते के दौरान मौजूद इस्लामिक नेताओं को ब्लैकलिस्ट से अमेरिका को हटा देना चाहिए था। वहीं अमेरिका के व्हाइट हाउस प्रेस सेक्रेटरी ने कहा है कि अमेरिका को तालिबान सरकार को मान्यता देने की कोई जल्दी नहीं है, वह अपने सामरिक हितों के आधार पर ही निर्णय लेगा।

धार्मिक आतंकवाद बढ़ने का खतरा : तालिबान की अफगान में ताजपोशी से विश्व पर जो सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है वह है धर्म प्रेरित या धार्मिक आतंकवाद बढ़ने का। वैसे भी समकालीन विश्व में आतंकवाद का सर्वाधिक लोकप्रिय रूप धर्म प्रेरित आतंकवाद ही है। इसके समर्थक आतंकी हिंसा को धार्मिक आदेश या कर्तव्य के रूप में देखते हैं। यहां धर्म इनके द्वारा किए गए हिंसक घटनाओं को वैचारिक स्तर पर वैधता देने का कार्य करता है। धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवादिता और चरमपंथी विचारों को बढ़ावा देते हुए जिहाद (तथाकथित पवित्र धार्मिक युद्ध) के नाम पर आतंकी गतिविधियों को उचित ठहराया जाना धार्मिक आतंकवाद है। इसके तहत इस्लाम खतरे में हैं और उसके शुद्धिकरण की आवश्यकता है जैसे विचार देकर इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना और उसकी प्रतिष्ठा स्थापित करने पर आतंकी समूहों द्वारा जोर दिया जाता है। इसके साथ ही इस्लामोफोबिया जैसी धारणा को मजबूती देने की कोशिश की जाती है।

अलकायदा, लश्कर-ए-तैयबा, बोको हराम, अलशबाब, आइएसआइएस जैसे आतंकवादी संगठन धार्मिक आतंकवाद को इन्हीं मान्यताओं के आधार पर बढ़ावा देते हैं। मोरक्को, अल्जीरिया और फिलीपींस जैसे देशों में इसी आधार पर इस्लामिक गौरव की पुनर्बहाली के नाम पर जिहाद को बढ़ावा दिया जाता है। यहां इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि नाइजीरिया, सोमालिया, अल्जीरिया, मोरक्को, यमन, लेबनान जैसे देशों में सक्रिय आतंकी संगठन कल को तालिबान के तर्ज पर सत्ता पर काबिज होने का प्रयास कर सकते हैं। अफगान में तालिबान की ताजपोशी से इस बात की भी आशंका बढ़ गई है कि आतंकी गतिविधियों के लिए अब आतंकी संगठन भूमि पर कब्जा करने के प्रयासों से पीछे नही हटेंगे। जिस तरह यमन के हूती विद्रोहियों ने राजधानी साना समेत कई भागों पर कब्जा कर यमन सरकार समेत सऊदी अरब का ध्यान अपनी तरफ आकर्षति किया था उसी प्रकार इस्लामिक स्टेट ने इराक और सीरिया के महत्वपूर्ण इलाकों पर कब्जा किया है। तालिबान नेटवर्क और आइएसआइएस खोरासान ने अफगान के हिस्सों को कब्जे में लेकर दुनिया के तमाम आतंकी संगठनों को यह संदेश दे दिया कि वे भी सत्ता पर काबिज हो सकते हैं।

तालिबान की अफगान में ताजपोशी के बाद एक बार फिर से खैबर पख्तूनख्वा, वजीरिस्तान, स्वात घाटी जैसे क्षेत्र आतंकी गतिविधियों की चपेट में आ जाएंगे और जिस तरह पाकिस्तान इस समय तालिबान का गुणगान करते नहीं थक रहा है, उससे भी इस बात का संकेत मिलता है कि तालिबान और पाकिस्तान का गठजोड़ भारत समेत बलूचिस्तान और सिंध के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकता है। अब जब तालिबान अफगान में एक राजनीतिक सच्चाई बन ही चुका है तो भारत समेत अन्य देशों के पास ऐसी स्थिति में काम करने के कौन कौन से विकल्प हैं, इसको जानने में विश्व समुदाय की दिलचस्पी है। सबसे पहली बात यह आती है कि एक विकल्प यह है कि तालिबान को विविध देश राजनीतिक कूटनीतिक मान्यता प्रदान करें, लेकिन यह विकल्प वही देश अपना सकते हैं जिनकी सोच या तो तालिबान से मेल खाती है या फिर वो किसी देश को दबाव में डालने के लिए तालिबान से सामरिक व आर्थिक गठजोड़ प्रदर्शित करना चाहते हैं। रूस अमेरिका विरोध और साथ ही अपनी क्षेत्रीय सुरक्षा के नाम पर तालिबान शासन के प्रति उदार दिख रहा है, वहीं ब्रिटेन जैसे देशों ने भी कह दिया है कि जरूरत पड़ी तो तालिबान के साथ मिलकर काम कर सकते हैं। यहां ब्रिटेन के इस दृष्टिकोण का परीक्षण करें तो पता चलता है कि यूरोपीय संघ से निकलने और कोविड का प्रभाव ङोलने के बाद ब्रिटेन अफगान शरणाíथयों का बोझ नहीं ङोलना चाहता।

तालिबान की राजनीतिक कार्यसंस्कृति का प्रदर्शन : अफगानिस्तान में अपनी पैठ मजबूत बनाने के बाद तालिबान आज जिस तरीके की राजनीतिक कार्यसंस्कृति को अपना रहा है, जिस तरह से वह यह कह रहा है कि अफगान महिलाएं बच्चों को जन्म देने के लिए हैं, न कि अंतरिम सरकार में मंत्री बनने के लिए, उससे ईरान सहित अफगानिस्तान के अन्य पड़ोसी देशों में इस बात की चिंता बनी हुई है कि तालिबान समावेशी सहभागितामूलक राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण कैसे करेगा। ईरान सहित अफगानिस्तान के पांच अन्य पड़ोसी देशों चीन, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों ने कुछ दिन पहले ही वर्चुअल मीटिंग करते हुए तालिबान के राजकाज के तरीकों, साङो हितों और क्षेत्रीय सुरक्षा पर भी बात की है। ईरान इस बात से तनाव में है कि तालिबान अफगान के शियाओं के साथ कैसा बर्ताव करेगा, क्योंकि ईरान में करीब 40 लाख अफगान शरणार्थी रहते हैं और ईरान एक बड़ी शरणार्थी समस्या में फिर से फस सकता है। इस प्रकार सभी देशों की तालिबान को लेकर कुछ न कुछ सुरक्षा आशंकाएं हैं जिनके समाधान के लिए वे देश आंतरिक स्तर पर अपने अपने तरीके से लगे हुए हैं।

तालिबान की संरचना और उसकी कार्यप्रणाली एशिया के कई हिस्सों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती आई है और अब बड़े स्तर पर प्रभावित कर सकती है। तालिबान के दो धड़े हैं, एक अफगानी तालिबान जो पश्तून या पश्तो है और दूसरा पाकिस्तानी तालिबान। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान यानी टीटीपी पाकिस्तान में सबसे घातक तालिबानी संगठन है। यह पाकिस्तान के सभी तालिबानी समूहों का मातृ संगठन है। दोनों में मुख्य अंतर यह है कि एक तरफ जहां अफगान तालिबान अमेरिका और नाटो के नेतृत्व वाली फौजों से अफगान में निपटने पर ज्यादा ध्यान देता है, तो वहीं टीटीपी पाकिस्तानी सुरक्षा बलों से संघर्ष करने पर जोर देता है।
हक्कानी नेटवर्क को पाक से काफी हद तक समर्थन मिला हुआ है जिससे वह अफगान में अपने हिंसक अभियान चलाता आया है। हक्कानी नेटवर्क का भी उद्देश्य जिहाद की भावना के आधार पर शरिया कानून से शासित अफगान राष्ट्र का निर्माण है और इस आधार पर एक राष्ट्रवादी अफगान सरकार के निर्माण का समर्थन करता है। अफगानिस्तान में आइएसआइएस खोरासन जैसे आतंकी संगठन भी सक्रिय हैं। खोरासान ऐसा क्षेत्र है जिसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान और मध्य एशिया के क्षेत्र शामिल हैं। इसका भी उद्देश्य अफगान में इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना है। इन इस्लामिक आतंकी संगठनों की कार्यप्रणाली और उद्देश्य देखकर लगता है कि पाकिस्तान के चाहे बिना अफगानिस्तान का राजनीतिक भविष्य प्रशस्त नहीं हो सकता।

टीटीपी दक्षिणी वजीरिस्तान में स्थित है जिसके तीन मुख्य लक्ष्य हैं: पहला पाकिस्तान में शरिया कानून को लागू करना, दूसरा एक एकीकृत फ्रंट तैयार करना जो अफगान में अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो फौजों का प्रतिकार और तीसरा पाकिस्तानी सुरक्षा बलों के खिलाफ एक सुरक्षात्मक जिहाद को अंजाम दे सके। इसका अंतिम उद्देश्य पाकिस्तानी सरकार को उखाड़ फेक कर वहां इस्लामी खलीफा साम्राज्य की स्थापना करना है। वर्ष 2014 से आंतरिक टूट-फूट और पाकिस्तान के आतंकवाद निरोधक अभियानों ने टीटीपी को कमजोर किया है। वर्ष 2018 में टीटीपी के सबसे बड़े नेता मौलाना फजलुल्ला की मौत के बाद से ही इस समूह के भविष्य पर खतरा मंडराने लगा।

अमेरिका द्वारा आतंकवाद निरोध के लिए जारी की गई नई राष्ट्रीय रणनीति में पाकिस्तान से संचालित दो आतंकवादी संगठनों लश्कर-ए-तैयबा और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के अतिरिक्त बोको हराम की पहचान अमेरिका के लिए संभावित खतरे के तौर पर की गई है। अमेरिका द्वारा आतंकवाद निरोध के लिए राष्ट्रीय रणनीति में कहा गया है कि आइएसआइएस और अलकायदा के अलावा कई अन्य इस्लामी आतंकवादी संगठन स्थानीय रूप से केंद्रित विद्रोहियों या आतंकवादी अभियानों को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहे हैं, जबकि वे अमेरिकी नागरिकों और विदेश में उसके हितों के लिए संभावित खतरा बने हुए हैं। रणनीति के अनुसार सीमित संसाधन या राजनीतिक कारणों के चलते ये संगठन अमेरिकी सरजमीं या अमेरिकी हितों के खिलाफ हमले की जगह संभवत: क्षेत्रीय लक्ष्यों को प्राथमिकता देंगे।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार] सोर्स-जागरण।

Kunal Gupta
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